षष्ठं कात्यायनीति च’
॥ देवी का छठा रूप: ‘कात्यायनी’ ॥
॥ तपोवन संस्कृति की उद्भाविका देवी॥
प्रकृति को सम्मान देना तथा उसे एक राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षित करना हमारा राष्ट्रधर्म होना चाहिए।
नवरात्र के छठे दिन देवी के छठे रूप ‘कात्यायनी’ ‘की पूजा-अर्चना की जा रही है।कात्यायनी देवी के संदर्भ में एक पौराणिक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक समय ‘कत ’नाम के प्रसिद्ध ॠषि के पुत्र ॠषि ‘कात्य’ हुए तथा उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध ‘कात्य’ गोत्र से उत्पन्न विश्वप्रसिद्ध ॠषि कात्यायन हुए थे। पौराणिक मान्यता के अनुसार कात्यायन ऋषि की तपस्या से प्रसन्न होकर उनके आश्रम में ब्रह्मा, विष्णु और शिव के तेज से कात्यायनी देवी का प्रादुर्भाव हुआ था
(वामनपुराण, 19.7)। महर्षि कात्यायन ने इनका पुत्री के रूप में पालन-पोषण किया तथा उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण देवी दुर्गा को ‘कात्यायनी’ कहा जाने लगा।
पौराणिक मान्यता है कि जब महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब ऋषियों के संकटों को दूर करने लिए तथा महिषासुर का विनाश करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अपने अपने तेज़ और प्रताप का अंश देकर इस देवी को महर्षि कात्यायन के आश्रम में उत्पन्न किया था।
महर्षि कात्यायन जी की प्रबल इच्छा थी कि भगवती उनके घर में पुत्री के रूप में जन्म लें। इसके लिए उन्होंने देवी की कठोर तपस्या की । देवी भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार की तथा अश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेने के पश्चात शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी, तीन दिनों तक कात्यायन ॠषि ने इनकी पूजा की, दशमी को देवी ने महिषासुर का वध किया और देवों को महिषासुर के अत्याचारों से मुक्त किया।
वामनपुराण के अनुसार यह कात्यायनी देवी विन्ध्य पर्वतवासिनी हो गई। उसके ऊर्ध्व शिखर पर ऋषि-मुनियों द्वारा उपास्य कात्यायनी देवी ने दुष्ट दानवों का विनाश किया था-
”तस्योर्ध्वशृङ्गे मुनिसंस्तुता सा दुर्गा
स्थिता दानवनाशनार्थम्’।” (वामन.,19.36)
स्थिता दानवनाशनार्थम्’।” (वामन.,19.36)
वृन्दावन स्थित पीठ में ब्रह्मशक्ति महामाया माता कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध है- ‘व्रजे कात्यायनी परा ’। वृन्दावन का यह कात्यायनी पीठ भारतवर्ष के उन अज्ञात 108 एवं ज्ञात 51 पीठों में से एक प्राचीन सिद्धपीठ है। भगवान श्री कृष्ण को पाने की लालसा में ब्रजांगनाओं ने अपने हृदय की लालसा पूर्ण करने हेतु यमुना नदी के किनारे से घिरे हुए राधाबाग़ नामक स्थान पर श्री कात्यायनी देवी का पूजन किया था।
वेदव्यास जी ने श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध के बाईसवें अध्याय में गोपियों द्वारा भगवती कात्यायनी के पूजन से भगवान श्री कृष्ण को प्राप्त करने का सुन्दर वर्णन आया है-
“कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:॥”
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:॥”
हे कात्यायनि! हे महामाये! हे महायोगिनि! हे अधीश्वरि! हे देवि! नन्द गोप के पुत्र को हमारा पति बनाओ हम आपका अर्चन एवं वन्दन करते हैं।
“चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।”
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।”
अर्थात्- जिनके करकमलों में चमकती हुई तलवार है, वे श्रेष्ठ सिह की सवारी करने वाली दानव विनाशिनी ‘कात्यायनी’ देवी हमारा कल्याण करें।