दश महाविद्याएँ

दश महाविद्यायों की उपासना हमारी सनातन संस्कृति का अंग हैं। जिसमें श्री विद्या का विशेष महत्व हैं। श्री विद्या ललिता, राजराजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, पंचदशी और षोडशी के रूप में जाना जाता हैं। प्रसिद्ध दश महाविद्यायों में षोडशी विद्या, श्री विद्या का ही परिणत स्वरूप हैं। दश महाविद्यायों में तीन विद्याएँ प्रधान हैं।

काली, तारा और षोडशी इन तीनों विद्याओं से ही नौ विद्यायें और एक पूरक विद्या को मिलाकर दश महाविद्यायें होती हैं। मूलरूप से प्रधान विद्या श्रीविद्या ही हैं। इसी को ब्रह्मविद्या भी कहा जाता हैं।

दशमहाविद्याओं का वर्णन आगम ग्रन्थों में प्राप्त होता हैं। जो निम्नलिखित हैं।

१- महाकाली, २-तारा, ३- छिन्नमस्ता, ४- षोडशी, ५- भुवनेशवरी, ६- त्रिपुरभैरवी , ७- घूमावती,    ८- बगलामुखी, ९ – मातंगी, १०- कमला

१- महाकाली– विस्वातीत महाकाल की शक्ति का नाम ही महाकाली हैं। सृष्टि से पहले इस विद्या का साम्राज्य रहता हैं। यह भगवती का प्रथम स्वस्प हैं। आगम शास्त्र में महाकाली तथा राधा नाम से जानी जाती हैं। भगवती का स्वरूप महाभयानक हैं। रात्रि के मध्यकाल में देवी की उपासना का विशेष महत्व हैं। महाभयानक स्वरूप आकृति वाली अट्रटाहास करती हुई जिसके चार हाथ हैं, एक हाथ में नरमृण्ड हैं, एक में अभयमुद्रा, एक हाथ में वर हैं, गले में मुण्डमाल हैं, जिहवा बाहर हैं जो सर्वदा शमशान में रहती हैं। साधक इन्हीं स्वरूपों का ध्यान करते हैं।

शवारूढा महाभीमां धोरदृष्टां हसनमुखीम्‌ ।
चर्तुभुजा खड़गमुण्डवराभयकरां शिवाम् ‌।।
मुण्डमालथरां देवीं ललज्जिहृवां दिगम्बरम्‌ ।
एवं सधिन्तयेत्‌ कालीं श्मशानालयवासिनीम्‌ ।।

प्रलयकाल में समस्त विश्व शवरूप के समान दृष्टगत होता हैं। उस पर महाकाली आरूढ हैं। इसी रहस्य को समझाने के लिए सब को शक्ति शून्य अतैव शवरूप विश्व का निदान माना गया हैं। प्रलयरात्रि स्वरूपा संहारकारिणी शक्ति के इसी स्वरूप को बतलाने के लिए आगम शास्त्रों में बहुत ही सुन्दर व्याख्या की गई हैं।

२.तारा– हिरण्यगर्भ विद्या के अनुसार निगम शास्त्र ने सम्पूर्ण विश्व की रचना का आधार सूर्य को माना हैं सौरमण्डल आग्नेय होने से हिरण्यमय कहलाता हैं। उस हिरण्यमय मंडल के भेद में वह सौर ब्रह्मा को हिरण्यमय कहा जाता हैं। जिस प्रकार महाकाल पुरूष की शक्ति महाकाली हैं। इसी प्रकार विश्वाधिष्ठा हिरण्यगर्भ पुरूष की शक्ति तारा हैं। उग्र सूर्य की जो शक्ति हैं वही उग्रतारा नाम से प्रसिद्ध हैं। जब तक अन्नाहुति रहती हैं। तब तक तारा शांत रहती हैं। अन्नाभाव में वही उग्र बन कर संसार का नाश कर डालती हैं।

प्रत्यालीढपदार्पिताडूप्रिशवहद्घोराटूटहासा परा ।
खड़गेन्दीपरकर्त्रिखर्परभुजाहुंकारबीजोद्मवा ।।
खर्वा नीलविशालपिंगल जटाजूटैकमागर्युता ।
जाड़य॑ न्यस्य कपालकर्तुनगतां हन्त्युग्रताश स्वयम्‌ ।।

तारा अक्षोभ्य नाम के ऋषि पुरूष की परम शक्ति  हैं। ब्रह्माण्ड में धधकते पिंड की स्वामिनी हैं। चराचर ब्रह्माण्ड की उत्पत्तिकर्त्री तारा हैं। जो सूर्य में महाप्रकाश के रूप में उद्भासित हो रही हैं। उसे ही नीलताश के रूप में जाना जाता हैं। दशमहाविद्यायों में तारा की उपासना को प्रमुख माना हैं। जिसे हम तीन रूपों में जानते हैं।

१. उग्रतारा, २.एकजटा, ३.नीलसरस्वती

इसकी सात शक्तियां हैं।

१.परा, २.परात्परा, ३.अतीता, ४.चित्तपरा, ५.तत्परा, ६.तद्तीता, ७.सर्वातीता

देवी की उपासना करने से अनेको विद्यायों का ज्ञान प्राप्त होता हैं। यह देवी भोग और मोक्ष एक साथ प्रदान करने में समर्थ है। इसी कारण इनको सिद्धविद्या कहां जाता हैं। भवसागर से तारने के कारण इनको तारा कहा जाता हैं।

३. छिन्‍नमस्ता-महाविद्यायों में छिन्नमस्ता का स्थान तीसरा हैं। माता छिन्‍नमस्ता ने अपने सहचरियों को तृप्त करने के लिये अपने ही मस्तक का छेदन कर रक्त पान कराया। इनकी उपासना का विधान मध्यरात्रि में हैं। साधक को शन्नु विजय, समूह स्तंभन, राज्य प्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति, वॉकसिद्धि इत्यादि की प्राप्ति होती हैं। भगवती की तीन प्रकार की ग्रन्थिया बतलाई गयी हैं। जिनके भेदन के बाद योगी को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती हैं।

१. ब्रह्मग्रंथि २. विष्णुग्रंथि  ३. रूद्रग्रंथि  कहां गया हैं। मूलाधार में ब्रह्मग्रन्थि मणिपूर में विष्णुग्रंथि 

आज्ञाचक्र में रूद्र ग्रन्थि का स्थान हैं। इन ग्रन्थियों के भेदन से ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती हैं। योगियों का ऐसा स्थान हैं कि मणिपूर चक्र के नीचे की नाडियों में ही रति का मूल हैं। उसी पर छिन्नमस्ता महाशक्ति आरूढ हैं। इसका उर्ध्व प्रसार हाने पर रूद्रग्रंथि का भेदन होता हैं। भगवती की दोनों सहचरी रजोगुण तथा तमोगुण की प्रतीक हैं।

हिरण्यकश्यपु आसु वैरोचन आदि छिन्नमस्ता के ही उपासक थे । इसलिये इन्हें ब्रज वैरोचनियां कहा गया हैं। वैरोचन शब्द का शाब्दिक अर्थ अग्नि हैं। अग्नि का स्थान मणिपूर में छिन्‍नमस्ता का ध्यान किया जाता हैं।

ब्रज नाडी में इनका प्रभाव होने से इनको ब्रज वैरोचनियां कहते हैं। श्री भैरव तंत्र में कहा गया हैं कि इनकी आराधना से साधक जीव भाव से मुक्त होकर शिवभाव को प्राप्त कर लेता हैं।

४. षोडशी– दशमहाविद्यायों में इनका चौथा स्थान हैं। अत्यंत कान्ति विग्रह वाली सिद्ध देवी हैं। १६ अक्षरों के मंत्र वाली इन देवी का अंग कान्ति उदीयमान सूर्य मंडल की आभा की भौति हैं। इनकी चार भुजायें और तीन नेत्र हैं। भगवती सदा शान्त मुद्रा में लेटे हुये सदा शिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन हैं। इनके चारों हाथों में क्रमशः पाश, अंकुश, धनुष और बाण शोभायमान हैं। भगवती वर देने के लिये सदा भक्तों पर अनुग्रह करती हैं। इनका स्वरूप सौम्य तथा हृदय सदा दया से परिपूर्ण हैं। जो भक्त इनका आश्रय ग्रहण करते हैं। उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता हैं। इनकी महिता का गान आगम निगम करते है। आगम निगम ग्रन्थों में षोडशी देवी को
पंचवकत्रा अर्थात पांच मुखों वाली बताया गया हैं। जो निम्नलिखित हैं।

१ तत्पुरुष , २.सघोजात, ३.वामदेव, ४.अधोर, ५.ईशान । ये सभी भगवान शिव के पंचमुखों का प्रतीक हैं।

पंच दिशाओं के रंग क़मशः-१.हरित, २.रक्त, ३.श्रूम, ४.नील, ५.पीत होने से ये मुख भी उन्हीं रंगों के हैं। भगवती के दश हाथों में क्रमशः-अभय, शूल, ब्रज, खड़ग, अंकुष, घंटा, नाग और अग्नि हैं। इनके अन्दर १६ कलायें हैं, इसलिय ये षोडशी कहलाती हैं।

५. भुवनेश्वरी– भुवनेश्वरी भगवती जगदम्बां सौम्यरूप और अरूण कान्ति से युक्त हैं। दशमहाविद्यायों में पांचवे स्थान पर इनका वर्णन प्राप्त होता हैं। श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के अनुसार मूल प्रकृति का नाम भुवनेश्वरी है। जब समस्त विश्व ब्रह्म में लीन हो जाता हैं। उस समय ब्रह्म की आहलादनी शक्ति भगवती भुवनेश्वरी समस्त विश्व की अधिष्ठात्री के रूप मे जानी जाती हैं। भगवती के मुख्य आयुध अंकुश और पाश हैं। विश्व का वमन करने के लिये वामा, शिवमयी होने से ज्येष्ठा, जीवों को
दण्डित करने से रौद्री कही जाती हैं। भुवनेश्वरी के संग से भुवनेश्वर सदाशिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्ति होती हैं। महानिर्वाण तंत्र के अनुसार सम्पूर्ण महाविद्यायें भुवनेश्वरी की सेवा में सदा तत्पर रहती हैं। सात करोड  महामन्त्र इनकी सदा आराधना करते हैं। दश महाविद्यायें ही इनकी दश सोपान हैं। काली तत्व से निर्मित होकर इनकी दश स्थितिया हैं। जिनसें अव्यक्त भुवनेश्वी व्यक्त होकर ब्रह्माण्ड स्वरूपमयी हो जाती हैं। प्रलयकाल में कमला से व्यक्त जगत को क्रमशः लय होकर काली रूप में मूल प्रकृति बन जाती हैं। इसलिये इन्हें काल की जन्मदात्री भी कहां जाता हैं।

६. त्रिपुरमैरवी – दशमहाविद्यायों में इनका छठा स्थान हैं। भगवती रक्त वर्णा, रक्त वस्त्र पहने गले में मुण्डमाला धारण किये हुयें हाथों में जपमाला, पुस्तक, वर और अभय मुद्रा धारण कियें हुयें हैं। भगवती कमल के आसन पर विराजमान हैं। महिषासुर का वध भगवती भैरवी ने ही किया था। रूद्यामल सर्वस्व में इनकी उपासना तथा कवच का उल्लेख प्राप्त होता हैं।

अनेकों संकटों से मुक्ती पाने के लिये इनकी उपासन सर्वोत्तम हैं। आगम ग्रन्थों के अनुसार त्रिपुर भैरवी का एकाक्षर रूप प्रणव हैं। इनसे ही सम्पूर्ण भुवन प्रकाशित हो रहें हैं। इन्हीं से सृष्टि तथा इन्हीं से सृष्टि का लय होता हैं। “अ” से लेकर  विसर्गः तक सभी वर्ण भैरवी कहलाते हैं। तथा “क’ से लेकर ‘क्ष” तक ये सभी वर्ण योनि अथवा भैरवी कहे जाते हैं। त्रिपुरभैरवी योगेश्वरी रूप में उमा स्वरूपा हैं। इन्होनें भगवान शिव को प्राप्त करने के लिये घोर तप किया है। इनके अनेको भेद हैं। जैसे- १.सिख्भैवरी, २.चैतन्यभैरवी, ३.भुवनेश्वरीभैरवी, ४.कमलेश्वरभैरवी, ५.कामेश्वरीभैरवी, ६.षट्रकूटाभैरवी, ७.नित्याभैरवी, ८.कालैशीभैरवी, ६.रूद्रमैरवी आदि सिद्धभैरवी

उत्तराय पीठ की देवी हैं। नित्याभैरवी पश्चिमाराय पीठ की देवी हैं। इनके उपासक स्वयं भगवान शिव हैं। रूद्गभैरवी दक्षिणाराय पीठ की देवी हैं।

इनके उपासक भगवान विष्णु है। त्रिपुरभैरवी के भैरवी बटुक हैं। मुण्डमाला तंत्रानुसार त्रिपुरभैरवी को भगवान नृसिंह की अभिन्‍न शक्ति बताया गया हैं। त्रिपुरमैरवी का रात्रि नाम कालरात्रि तथा भैरवीका कालभैरव हैं।

७- धूमावती– दशमहाविद्यायों में धूमावती का स्थान सातवां माना जाता हैं। भगवती माता पार्वती हिमालय पर्वत पर भगवान शिव के साथ शोभायमान हो रहीं हैं। भगवती व्याकुल होकर भगवान शिव से प्रार्थना कर रही थी। परन्तु भगवान शिव ने माता पार्वती की प्रार्थना का ध्यान नहीं दिया । भगवती ने क्रोधावश भगवान शिव को निगल लिया और उस समय भगवती के शरीर से धूमराशि निकली व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड धूम से व्याप्त हो गया। भगवान शिव ने माता पार्वती को धूमावति नाम से अलंकृत किया। स्वातंत्र तंत्र के अनुसार दक्षयन्ञ में योगाग्नि के द्वारा स्वयं को भस्म कर दिया । उस समय जो धूम निकला उसी के कारण उनका नाम धूमावती पडा। धूमावती की उपासना करने से सभी विपत्तियों का नाश, रोगों का निवारण, युद्ध में विजय, उच्चाटन तथा मारण के प्रयोग किया जाता हैं।

शतपथ ब्रह्मण के अनुसार धूमावति और निर्त्रपृति एक हैं। यह लक्ष्मी की ज्येष्ठा हैं। तंत्र ग्रन्थों के अनुसार धूमावति उग्रताश हैं। जो धूमा होने से धूमावति कही जाती हैं। ऋग्वेद के रात्रिसूक्त में इन्हें ‘सुतश” कहा गया हैं। इसलिये आगमों में इन्हें अभाव और संकट को दूरकर सुख प्रदान करने वाली भूति कहां गया हैं।

८. बगलामुखी– दशमहाविद्यायों में बगलामुखी का स्थान आठवां हैं। पीताम्वरा विद्या तथा बगलामुखी से विख्यात यह विद्या शत्रुभय से मुक्ति तथा वाक् के लिये प्रयोग की जाती हैं। उपासना में पीत माला, पीत वस्त्र, पीत आभूषण सब कुछ पीत रंग का होना अनिवार्य हैं। भगवती सागर में स्थित मणिमय में रक्त सिंहासन पर शोभायमान हो रहीं हैं। जिनकें एक हस्त में शत्रु की जिह्ववा दूसरे हस्त में मुदर सुशोभित हो रहा हैं। बगलामुखी विद्या भगवान विष्णु के तेज से युक्त होने के कारण वैष्णवी कही जाती हैं। इस विद्या का प्रयोग धन थान्य की प्राप्ति व अभिचारिक कर्म हेतु तथा अनेकों उपद्गव्यों को समाप्त करने हेतु इसका प्रयोग किया जाता हैं। यह विद्या मोक्ष एवं भोग दोनों को प्राप्त करानें में सर्मथ हैं। भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में कहाँ है- 

विष्टम्याहमिदं कृतस्त्रमेका शेनं स्थितो जगत

कहकर उसी शक्ति का समर्थन किया हैं। तंत्र शास्त्रों में स्तम्मनं शक्ति बगलामुखी के नाम से जानी जाती हैं।

श्री बगलामुखी को ब्रह्मस्त्र के नाम से भी कहां जाता हैं। इस विद्या का प्रयोग गुरू के सान्निध्य में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये बाहरी व भीतरी पवित्रता के साथ करना चाहिए । इस विद्या को परम्परा से सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने बगलामुखी की उपासना की तथा ब्रह्म ने इस विद्या को सनकादि मुनियों का प्रदान किया। तत्पश्चातू सनत्कुमार ने नारद को नारद जी ने साख्यायन को सांख्यायन ने छत्तीस पटलों में उपनिबद्ध बगलातंत्र की रचना की, बगलामुखी की द्वितीय धारा में श्रीहरि विष्णु तथा उसके पश्चात्‌ परशुराम तथा परशुराम द्वारा आर्चाय द्रोण को यह विद्या प्रदान की गई।

९ . मातंगी– दशमहाविद्यायों में नवीं विद्या मातंगी हैं। भगवती मातंगी त्रिनेत्रा रत्नमय सिंहासन पर आखढ नीलकमल के समान कान्तिवाली श्यामवर्ण चन्द्रमा को मस्तक पर धारण किये हुये साक्षात शिव का स्परूप हैं। भगवती चर्तुभुज हैं। उनके हाथों में पाश, अंकुश, खेटक और खड़ग धारण किये हुये हैं। मतंग ऋषि ने भगवती त्रिपुरा की उपासना करके सभी जीवों को अपने वश में करने हेतु कठोर तप किया। भगवती त्रिपुरा प्रसन्‍न होकर अपने तेज से एक श्यामल स्वरूपा राजमातंगनी का स्परूप प्रकट किया जिसे मातंगी कहां जाता हैं। यह दक्षिण तथा पश्चिम की देवी हैं। राजमातंगी सुमुखी, वश्यमातंगी तथा कर्णमातंगी इनके अन्य नाम हैं। इनके मैरव का नाम मतंग हैं।

ब्रह्मययामल में इन्हें मतंग मुनि की कन्या भी कहां जाता हैं। मातंगी की उपासना विशेषरूप से वॉक्‌शुद्धि हेतु की जाती हैं। यही भगवती तांत्रिकों की मातंगी तथा वैदिकों की सरस्वती स्वरूपा हैं।

१०. कमला– दशमहाविद्यायों में इनका स्थान दशवां हैं। भगवती कमला वैष्णवी शक्ति से युक्त श्री विष्णु की लीला सहचरी हैं। भगवती समस्त भौतिक तथा प्राकृतिक सम्पदा का अधिष्ठात्री देवी हैं। चराचर ब्रह्मण्ड में समस्त देवता गन्धर्व, राक्षस, मनुष्य इत्यादि सभी भगवती की उपासना करते हैं। भगवती महालक्ष्मी सुवर्ण कान्ति से युक्त हैं। ये अपनी दो भुजाओं में वर एवं अभय मुद्रा तथा दो भुजाओं दो कमल पुष्प धारण किये हुये हैं। भगवती सुदंर रेशमी परिधान तथा सिर पर सुदंर किरीट धारण किये हुये हैं। भगवती कमल के सुदंर आसन पर शोभायमान हैं। भगवती कमला को लक्ष्मी तथा षोडशी भी कहां जाता हैं। भार्गव के द्वारा पूरित होनें के कारण इन्हें भार्गवी कहां जाता हैं। भगवान आद्यशंकराचार्य के द्वारा विरिचित कनकधार स्त्रोत तथा श्री सूक्‍त का पाठ श्री मंत्र का जप  कमलगट्टों की माला पर किया जाता हैं। विल्वफल तथा विल्वपत्र भगवती को विशेष प्रिय हैं। वाराही तंत्र के अनुसार प्राचीन काल में कमला को त्रिपुरा नाम से जाना जाता था। कालिका पुराण के अनुसार शिव की भार्या होनें से इन्हें त्रिपुरा कहां जाता हैं। मैरवामल तथा शान्तिलहरी में इनकी आराधना का विस्तृत वर्णन किया गया हैं। भगवती कमला के पांच कार्य हैं। तिरोभाव सृष्टि, स्थिति, संहार और अनुम्रह हैं।

भगवान श्रीहरि नारायण के सभी कार्य भगवती स्वयं ही करती हैं। इसलिये प्रथम महाविद्या से लेकर दश महाविद्या तथा सृष्टि, लय, गति, व्यष्टि, स्थिति, विस्तार, भरण, पोषण, जन्म, मरण, नियन्त्रण, अवनति, उन्नति बंधन इन सभी की एकमात्र स्वनियंत्रक चराचर ब्रह्माण्ड अधीश्वरी, भगवती पराम्बा जगदम्बा एकमात्र शक्ति हैं।